आम के पेड़ पे बौर का खिलना,
छोटी छोटी कलियों का निकल आना,
गिलहरी का टहनी पे मटक के चढ़ जाना,
एक आँख मुँद कर हमारा आम के पेड़ पे टकटकी लगाना,
कहीं गिलहरी मेरी कैरियों की बौर तो नहीं खा रहीं है?
श: श:श: करकें गिलहरी को डराना,
पर मजाल है कि गिलहरी रानी को किसी का डर पढ़ा हो।
रोज़ पौ फटते ही फिर आँगन की और भागना,
बड़ती,फलती, खिलखिलाती कैरियों में अपना नाम हवा में लिख़ना,
वो वाली मेरी,
वह पतली टहनी वाली टुकुन की,
वह बहुत ऊँची वाली अज्जू भैया की,
और आख़री टहनी तबरेज़ की,
कम्बख़्त उसी के आँगन की तरफ़ भाग रही है।
ओर फिर, नो तपे की एक उदासीन धुप में आया सरपट धुल भरा तुफान। तेज़ हवा का भुचाल।
दौड़ दौड़ के किसी ने रस्सी से कपड़े उतारे,
किसी ने आचार की बरनिया सँभाली,
तो किसी ने झटपट खिड़कियाँ और दरवाज़े की साँकलें बंद की।
जो जहां था वह थम गया।
फ़ोन कीं लाइनें उखड़ गई,
बिजली के तार हिल गए,
जब तक हवा की सनसनाहट तेज़ थी,
घर बैठे लोगों ने ताश की बाज़ी खेल ली,
बच्चों ने केरम पे हाथ अज़मा लिया,
बढ़ी अम्मा ने सबके लिए बीडा लपेटा,
खगन की अम्मा ने सबको रूअफजा़ पिलाया,
घंटा बिता तो पड़ोस के घर से चिरती हुईं आवाज़ आई,
गुजर गया है।
मैंने बिना सोचे समझे आँगन का दरवाज़ा खोल दिया,
आँगन बिछा पड़ा था कैरियों की बौर से,
छोटी नन्ही कैरियों से।
समझ न आया कि दौड़ के सबको अपनी गोद मैं समेट लूँ,
या किनारे बैठ के रौ दूँ।
क्योंकि, न तो अब बड़ी कच्ची कैरी के मजे़ लूटे जाएँगे,
और न मैं मोहल्ले मैं अपने घर की कैरियों को लेकर अफ़सरी जता पाऊँगी।
ख़ैर, आज़ न तो वह आम का पेड़ है,
और न ही शोरगुल से भरा वह आँगन,
है तो बस उधारी का यह झरोखा ।
८-०४-२०२१, रुचि
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